Friday, July 5, 2019

बलूच जज जस्टिस काज़ी ईसा पाकिस्तानी सेना की आँखों में क्यों खटक रहे

पाकिस्तान में किसी जज का विवादों में पड़ना कोई नई बात नहीं है. पूर्व चीफ़ जस्टिस चौधरी इफ़्तिख़ार से लेकर जस्टिस जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा तक इसकी लंबी परंपरा रही है.
जस्टिस क़ाज़ी ईसा का मामला इसलिए भी ग़ैरमामूली है क्योंकि देश की सुप्रीम जूडिशल काउंसिल जस्टिस क़ाज़ी और एक अन्य जज के ख़िलाफ़ सुनवाई कर रही है.
जस्टिस क़ाज़ी पर ये इल्ज़ाम है कि उन्हें अपनी बीवी और बच्चों के नाम ब्रिटेन में तीन प्रॉपर्टी ख़रीद रखी हैं और इसका जिक्र उन्होंने अपने हलफ़नामे में नहीं किया था.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जस्टिस ईसा ने ना केवल सेना की 'पॉलिटिकल इंजीनियरिंग' पर सवाल उठाए बल्कि अपनी शपथ का उल्लंघन करने वाले सैनिकों के खिलाफ कार्रवाई करने का भी आदेश दिया.
लाहौर स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार जाहिद मुख्तार ने इंडिया लीगल को बताया कि जस्टिस ईसा ने 2017 में तहरीक-ए-लबाइक पाकिस्तान (TLP) के फैजाबाद धरने में जो फैसला दिया था, उससे सेना की नजरें टेढ़ी हो गई थीं.
धरने का उद्देश्य तत्कालीन नवाज़ शरीफ़ की सरकार को कमज़ोर कर देना था लेकिन यह नियंत्रण से बाहर हो गया और TLP कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय राजमार्ग ब्लॉक कर दिए. हिंसा और दंगे भड़क गए.
इस मामले की सुनवाई करने वाली दो सदस्यीय सुप्रीम कोर्ट बेंच की अध्यक्षता जस्टिस ईसा कर रहे थे. 2019 में उन्होंने अपने फैसले में आर्मी खासकर ISI की कड़ी आलोचना की. सेना को फटकार लगाते हुए जस्टिस ईसा ने सरकार, इंटेलिजेंस एजेंसी और पाकिस्तान के चुनाव आयोग की तरफ से हुई गलतियों को भी चिह्नित किया. लेकिन सबसे सख्त शब्द आर्मी के ही खिलाफ इस्तेमाल किए गए थे.
इसके अलावा, जस्टिस ईसा ने अपने फैसले में पाकिस्तान की सरकार के रक्षा मंत्रालय और सेना प्रमुखों को शपथ का उल्लंघन करने वाले जवानों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश दिया.
पिछले कई दिनों से पाकिस्तान के क़ानूनी गलियारों में जस्टिस क़ाज़ी का मामला छाया हुआ है. पाकिस्तान की वकील बिरादरी इस मसले पर बंटी हुई है.
दो जुलाई को जिस दिन जस्टिस क़ाज़ी के मामले की सुनवाई थी, पाकिस्तान बार एसोसिएशन ने इसे काला दिन के तौर पर मनाने की घोषणा की.
इसके ठीक एक दिन पहले सोमवार को वकीलों की संस्था लॉयर्स एक्शन कमिटी ने मीटिंग बुलाकर पाकिस्तान बार एसोसिएशन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया.
पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा कोई पहली बार विवादों में नहीं हैं. हाई कोर्ट में तैनाती से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इन्हें कई बार वकील समुदाय और दूसरी सरकारी संस्थाओं के विरोध का सामना करना पड़ा है.
कराची में हुए बवाल को लेकर जब पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई की थी तो उस वक़्त क़ाज़ी ईसा पूर्व मुख्य न्यायाधीश चौधरी इफ़्तिख़ार की अदालत में सहायता के लिए पेश हुए थे.
दोनों का तालमेल कुछ यूं बना रहा कि जैसे ही अंतरिम संवैधानिक आदेश के तहत शपथ लेने वाले जज बर्ख़ास्त हुए बैरिस्टर क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा की बलूचिस्तान हाई कोर्ट के जज के तौर पर नियुक्ति कर दी गई.
इससे पहले वो रिज़वी, ईसा इंजीला लॉ फॉर्म के पार्टनर थे. याद रहे कि इफ़्तिख़ार मोहम्मद चौधरी ने भी क्वेटा से ही अदालती करियर की शुरुआत की थी.
जस्टिस क़ाज़ी ईसा जब बलूचिस्तान हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के पद पर बैठे तो बलूचिस्तान नेशनल पार्टी (मिंगल) ने इनकी नियुक्ति के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक पिटीशन फ़ाइल की.
पिटीशन में ये कहा गया था कि जस्टिस फ़ाएज़ ईसा की नियुक्ति संविधान के ख़िलाफ़ है क्योंकि किसी की भी बतौर जज नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट में दस साल की प्रैक्टिस का तजुर्बा होना ज़रूरी है.
इनकी नियुक्ति एडहॉक बुनियादों पर हुई थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार ने इस आवेदन को ख़ारिज कर दिया था.
जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा के पूर्वजों का संबंध अफ़ग़ानिस्तान के इलाक़े कंधार से था. बाद में वो बलूचिस्तान के इलाक़े पशीन में आकर आबाद हुए.
इनके दादा क़ाज़ी जलालुद्दीन क़लात रियासत के प्रधानमंत्री रहे जबकि पिता क़ाज़ी मोहम्मद ईसा तहरीक-ए-पाकिस्तान के कद्दावर लीडर थे.
उन्हें ऑल इंडिया मुस्लिम लीग बलूचिस्तान का पहला अध्यक्ष होने का सम्मान हासिल था. बाद में जब पाकिस्तान की स्थापना के लिए रेफ़रेंडम हुआ तो उन्होंने इसमें भरपूर तहरीक चलाई.
अमरीका और भारत में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत और संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधी रहे अशरफ़ क़ाज़ी इनके चचेरे भाई हैं जबकि दिवंगत बलूच क़ौम परस्त रहनुमा नवाब ख़ैर बख़्श से भी इनकी रिश्तेदारी थी.
क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा की पैदाइश 26 अक्टूबर, 1959 को क्वेटा में हुई. इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा वहीं से हासिल की. बाद में कराची ग्रामर स्कूल से 'ओ' और 'ए' लेवल क्वॉलिफ़ाई किया और क़ानून की तालीम हासिल करने लंदन चले गए, जहां से 1985 में वापस आए और बलूचिस्तान हाई कोर्ट के वकील के तौर पर काम करने लगे.

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